WHEN CAN THE COURT PASS A STAY ORDER?

            कोर्ट कब स्टे आर्डर पारित कर सकती है।

किसी भी सिविल केस में किसी कार्य या लोप पर अदालत द्वारा लगाई जाने वाली रोक को आम बोलचाल की भाषा में स्टे कहा जाता है। हालांकि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 में इसे अस्थाई निषेधाज्ञा कहा गया है, इंग्लिश में इसे टेम्परेरी इनजंक्शन कहा जाता है।


कार्य का मतलब होता है किसी काम को करना और लोप का मतलब होता है किसी काम को नहीं करना। कोई भी सिविल मुकदमा इन दो चीज़े पर ही आधारित होता है। जैसे किसी की मालिकाना ज़मीन पर कोई अन्य व्यक्ति किसी बिल्डिंग का निर्माण कर रहा है तब यह कार्य है, यदि अदालत ऐसे कार्य पर स्टे करती है तो उसे करने से रोकना होगा और यदि किसी की मालिकाना ज़मीन पर कोई बिल्डिंग बना ली गई है और अब हटाई नहीं जा रही तब यह लोप है, अदालत ऐसी बिल्डिंग को हटाने का ऑर्डर कर सकती है। हालांकि स्टे केवल कार्य के मामले में दिए जाते हैं, अदालत यथास्थिति का ऑर्डर कर देती है।

सिविल प्रक्रिया संहिता में स्टे के प्रावधान इसलिए है क्योंकि किसी भी मूल प्रकरण को पूरी तरह सुनकर डिसाइड करने में अधिक समय लग जाता है और विरोधी पक्षकार इतने समय में मुकदमे के अर्थ को ही बदल देता है। जैसे किसी मुकदमे में यदि किसी व्यक्ति की कोई ज़मीन गिरवे रखी है और व्यक्ति उस ज़मीन को बेचना चाहता है तब यदि उस व्यक्ति को अदालत द्वारा तत्काल नहीं रोका गया तो मूल वाद का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा क्योंकि जिस व्यक्ति के पास ज़मीन बंधक रखी गई है उसका उस ज़मीन पर भार है।

स्टे ऑर्डर से संबंधित कानून क्या है

स्टे से संबंधित कानून सिविल प्रॉसिजर कोड,1908 के ऑर्डर 39 रूल 1 एवं 2 में मिलते हैं। कोई भी स्टे एप्लीकेशन इस ही कानून के अंतर्गत दी जाती है।


1.   आदेश 39, नियम 1 उन मामलों के बारे में बात करता है जिनमें अदालत वैधानिक राहत के रूप में अस्थायी निषे-धाज्ञा दे सकती हैवे हैं:
·        संपत्ति विवाद के मामले मेंयदि विचाराधीन संपत्ति के बर्बाद होनेक्षतिग्रस्त होने या अलग होने या मुकदमे में शामिल किसी व्यक्ति द्वारा गलत तरीके से बेचे जाने का जोखिम है।
·        यदि किसी व्यक्ति ने अपने लेनदारों को धोखा देने के उद्देश्य से अपनी संपत्ति को हटाने या निपटाने की धमकी दी या प्रदर्शित करने का इरादा दिखाया। यह केवल प्रतिवादी के लिए विशिष्ट है।
·        यदि वादी को – प्रतिवादी द्वारा – विचाराधीन संपत्ति विवाद के संदर्भ में बेदखल या चोट पहुंचाने की धमकी दी जाती है।
·        यदि प्रतिवादी शांति या अनुबंध का उल्लंघन करनेवाले थे। उपरोक्त आधार को सीपीसी, 1908 के आदेश 39, नियम 2 में भी उजागर किया गया है। 
·        अंत मेंअदालत एक निषेधाज्ञा जारी कर सकती है यदि उसकी राय है कि यह कार्य न्याय के हित में होगा।
2.  आदेश 39, नियम 2-A एक निषेधाज्ञा के संबंध में किसी व्यक्ति के गैर-अनुपालन के बारे
में
 बात करता हैवे हैं:
·        यह उस व्यक्ति को तीन महीने से अधिक के लिए सिविल जेल में बंद रखने का आदेश देता है।
·        इसके अलावायह उस दोषी व्यक्ति की संपत्ति को एक वर्ष से अधिक के लिए कुर्क (अटैचमेंटकरने का वारंट देता है। हालांकिअगर अपराध जारी रहना थातो संपत्ति बेची जा सकती है।
·        राम प्रसाद सिंह बनाम सुबोध प्रसाद सिंह (1983) के मामले मेंयह रेखांकित किया गया था कि सीपीसी 1908 के आदेश 39, नियम 2-A के तहत किसी भी व्यक्ति को संबंधित मुकदमे का पक्ष होना आवश्यक नहीं हैबशर्ते यह पता हो कि वह प्रतिवादी का मध्यस्थ व्यक्ती था जिसने इसके बारे में जागरूक होने के बावजूद निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया।
3. आमतौर परअदालत को निषेधाज्ञा के आवेदन के संबंध में विरोधी पक्ष को नोटिस जारी करने की आवश्यकता होती हैलेकिन आदेश 39, नियम 3 के माध्यम सेअदालत एक पक्षीय (एक्स पार्टेआदेश पास कर सकती हैजब अदालत को यह विश्वास होता है की निषेधाज्ञा का उद्देश्य देरी के कारण पराजित हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम एरा एजुकेशनल ट्रस्ट (2000) के मामले के माध्यम से अदालतों के लिए एक पक्षीय निषेधाज्ञा पर निर्णय लेते समय पालन करने के लिए कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत निर्धारित किएवे हैं:
·        क्या वादी प्रतिवादी द्वारा अपूरणीय शरारत का शिकार होगा?
·        यदि एक पक्षीय निषेधाज्ञा नहीं दी जाती है तो क्या अन्याय का भार भारी होगा?
·        क्या एक पक्षीय क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिक्शनके लिए आवेदन करने का समय दुर्भावना से प्रेरित था?
·        अदालतें संतुलन और अपूरणीय हानि के सामान्य सिद्धांत पर भी विचार करेंगी।
4. आदेश 39, नियम 4 में कहा गया है कि यदि कोई असंतुष्ट पक्ष इसके खिलाफ अपील करता हैतो निषेधाज्ञा को हटाया जा सकता हैबदला जा सकता है या रद्द किया जा सकता हैबशर्ते कि:
·        निषेधाज्ञा या उसकी वकालत करने वाले दस्तावेजों में जानबूझकर झूठे या भ्रामक बयान शामिल थे और निषेधाज्ञा दूसरे पक्ष को सुने बिना दी गई थी। इस प्रकारअदालत निषेधाज्ञा को हटा देगी। हालांकियह निषेधाज्ञा के साथ भी हो सकता है यदि वह मानता है – की कारण दर्ज किया जाना चाहिए – वही अन्याय के संदर्भ में आवश्यक नहीं है।
·        इसके अलावाअदालत निषेधाज्ञा को भी रद्द कर सकती हैअगर परिस्थितियों में बदलाव के कारणजिस पक्ष के खिलाफ निषेधाज्ञा दी गई हैउसे इस वजह से अनावश्यक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।
5. आदेश 39, नियम 5 एक महत्वपूर्ण बिंदु बताता है कियदि किसी निगम या फर्म के खिलाफ निषेधाज्ञा दी जाती हैतो निगम का अधिकार केवल एक इकाई के रूप में निगम तक सीमित नहीं हैनिगम के सदस्य और अधिकारी जिनकी व्यक्तिगत कार्रवाई करना चाहता है वह भी इसके दायरे में आता है। 

स्टे एप्लिकेशन कब लगाई जाती है

स्टे एप्लिकेशन किसी भी मूल वाद के साथ या फिर पुराने वाद के बीच में लगाई जा सकती है। सेपरेट कोई भी स्टे एप्लिकेशन नहीं लगाई जाती है। ऐसा नहीं होता है कि कोई व्यक्ति केवल स्टे एप्लिकेशन के लिए अदालत में अर्ज़ी दाख़िल कर दे। स्टे इसलिए होता कि किसी वाद को पूरा सुने जाने तक वाद की मूल विषयवस्तु उस ही स्थिति में रहे जिस स्थिति में वह वाद अदालत में दाख़िल किए जाते समय है।


स्टे ऑर्डर का उल्लंघन करने पर क्या परिणाम होते हैं

जब अदालत किसी मामले में स्टे कर देती है और अपने ऑर्डर में यह स्पष्ट कर देती है कि स्थिति यथावत रहेगी और उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा, यदि ऐसे ऑर्डर को विरोधी पक्ष मानने से इंकार कर दे और इस तरह के ऑर्डर को अपील कोर्ट के द्वारा नहीं पलटने के बावजूद भी स्थिति में परिवर्तन कर दे तब यह कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट का मामला बन जाता है। वादी जिसे स्टे दिया गया है उसके द्वारा एप्पलीकेशन लाने पर विरोधी पक्ष को तीन माह तक का सिविल कारावास भी हो सकता है।


एक अस्थायी निषेधाज्ञा कब खारिज की जा सकती है?

जिन परिस्थितियों में अस्थायी निषेधाज्ञा दी जाती है, वे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 39, नियम 1 द्वारा शासित होती हैं, जिस पर बाद में चर्चा की जाएगी। इस प्रकार, उन उदाहरणों पर चर्चा करना अनिवार्य हो जाता है जब एक अस्थायी निषेधाज्ञा को अस्वीकार किया जा सकता है। यहां विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 41 में प्रकाश डाला गया है।

1.    किसी भी व्यक्ति को मुकदमा दायर करके न्यायिक कार्यवाही पर मुकदमा चलाने से रोकना, जिसमें निषेधाज्ञा मांगी गई है, जब तक कि वहा कार्यवाही की बहुलात (मल्टीप्लिसिटी) को रोकने के लिए संयम आवश्यक हो।

2.    किसी भी व्यक्ति को किसी ऐसे न्यायालय में किसी कार्यवाही को शुरू करने या मुकदमा चलाने से रोकना जो उसके अधीनस्थ नहीं है, और जिससे निषेधाज्ञा मांगी गई है।

3.    किसी भी व्यक्ति को किसी विधायी निकाय में आवेदन करने से रोकना।

4.    किसी भी व्यक्ति को आपराधिक मामले में किसी भी कार्यवाही को शुरू करने या मुकदमा चलाने से रोकना।

5.    एक अनुबंध के उल्लंघन को रोकने के लिए, जिसके प्रदर्शन को विशेष रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।

6.    उपद्रव (न्यूसेंस) के आधार पर रोकने के लिए, जिसका कार्य स्पष्ट नहीं है कि यह एक उपद्रव होगा।

7.    एक निरंतर उल्लंघन को रोकने के लिए जिसे वादी ने चुपचाप सहन किया है।

8.    जब विश्वास भंग के मामले को छोड़कर कार्यवाही के किसी अन्य सामान्य तरीके प्रभावकारी राहत निश्चित रूप से प्राप्त की जा सकती है।

9.    जब वादी या उसके मध्यस्थो का आचरण ऐसा रहा हो कि वह अदालत की सहायता के लिए उसे अयोग्य ठहरा सके। 

10. जब वादी का इस मामले में कोई व्यक्तिगत हित नहीं है।


स्टे ऑर्डर देना कोर्ट का विवेक है


यह आवश्यक नहीं है कि किसी सिविल वाद में आदेश 39 नियम 1 2 के अंतर्गत कोई आवेदन देने पर अदालत मामले में स्टे का ऑर्डर कर ही देती है। स्टे देना पूरी तरह अदालत के विवेक पर निर्भर करता है जिस तरह आपराधिक प्रकरण में गैर जमानती अपराधों में जमानत देना अदालत के विवेक पर आधारित होता है।

यदि मामले की ऐसी परिस्थिति नहीं है और ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए हैं जिनसे प्रथम दृष्ट्या यह प्रतीत होता हो कि वादी द्वारा लाए गए वाद में कोई सत्यता प्रतीत हो रही है तब अदालत स्टे ऑर्डर नहीं करती है। क्योंकि स्टे ऑर्डर के सिद्धांत यही कहते हैं कि परिस्थिति भी ऐसी होनी चाहिए जिससे यह स्पष्ट होता हो कि वाद में कोई सत्यता है और वादी के सफल होने की संभावना है तब ही अस्थाई निषेधाज्ञा का आवेदन स्वीकार करना चाहिए।


Comments

Popular posts from this blog

SELVI & ORS. VS. STATE OF KARNATAKA & ANR (ANOTHER) / CRIMINAL APPEAL NO. 1267 OF 2004

Comptroller and Auditor General of India (CAG)